FavoriteLoadingپسندیدہ کتابوں میں شامل کریں

 

 

ہزار رنگ اظہار کے

 

 

 

               شجاع خاور

جمع و ترتیب: اعجاز عبید

 

 

 

 

 

خواب اتنے ہیں یہی بیچا کریں

اور کیا اس شہر میں دھندا کریں

 

کیا ذرا سی بات کا شکوہ کریں

شکرئیے سے اسکو شرمندہ کریں

 

تو کہ ہم سے بھی نہ بولے ایک لفظ

اور ہم سب سے ترا چرچا کریں

 

سب کے چہرے ایک جیسے ہیں تو کیا

آپ میرے غم کا اندازہ کریں

 

خواب ادھر ہے اور حقیقت ہے ادھر

بیچ میں ہم پھنس گئے ہیں کیا کریں

 

ہر کوئی بیٹھا ہے لفظوں پر سوار

ہم ہی کیوں مفہوم کا پیچھا کریں

٭٭٭

 

 

 

 

 

دوسری باتوں میں ہم کو ہو گیا گھاٹا بہت

ورنہ فقر شعر کو دو وقت کا آٹا بہت

 

آرزو کا شور برپا ہجر کی راتوں میں تھا

وصل کی شب کو ہوا جاتا ہے سناٹا بہت

 

دل کی باتیں دوسروں سے مت کہو کٹ جاؤ گے

آج کل اظہار کے دھندے میں ہے گھاٹا بہت

 

کائنات اور ذات میں کچھ چل رہی ہے آج کل

جب سے اندر شور ہے باہر ہے سناٹا بہت

 

موت کی آزادیاں بھی ایسی کچھ دلکش نہیں

پھر بھی ہم نے زندگی کی قید کو کاٹا بہت

٭٭٭

 

 

 

 

روز سن سن کے ان الفاظ کا ڈر بیٹھ گیا

دل کسی طور سنبھالا تو جگر بیٹھ گیا

 

ہم بہت خوش تھے کہ بارش کے بھی دن بیت گئے

دھوپ دو روز پڑی ایسی کہ گھر بیٹھ گیا

 

اس پری وش کا بیاں پھر ہے زباں پر میری

راز داں آج مرا جانے کدھر بیٹھ گیا

 

کر دیا سوچ نے ترتیب کو درہم برہم

یوں سمجھ لو کہ پرندے پہ شجر بیٹھ گیا

 

میرے اظہار سے اس کو تو بدلنا کیا تھا

اسکی خاموشی کا خود مجھ پہ اثر بیٹھ گیا

٭٭٭

 

 

पार उतरने के लिए तो ख़ैर बिलकुल चाहिये बीच दरिया डूबना भी हो तो इक पुल चाहिये फ़िक्र तो अपनी बहुत है बस तगज्ज़ुल चाहिये नाला-ए-बुलबुल को गोया खंदा-ए-गुल चाहिये शख्सियत में अपनी वो पहली सी गहराई नहीं फिर तेरी जानिब से थोडा सा तगाफ़ुल चाहिये जिनको क़ुदरत है तखैय्युल पर उन्हें दिखता नहीं जिनकी ऑंखें ठीक हैं उनको तखैय्युल चाहिए रोज़ हमदर्दी जताने के लिए आते हैं लोग मौत के बाद अब हमें जीना न बिलकुल चाहिए क्या फ़िक्र जो दुश्मन हैं मिरे यार ग़ज़ल के मददाह भी मिल जायेंगे दो-चार ग़ज़ल के उस्लूब के तूफ़ान में मज़मून की कश्ती अल्लाह उतारेगा मुझे पार ग़ज़ल के तूफ़ान हो सीने में मगर लब पे खमोशी हज़रात यही होते हैं आसार ग़ज़ल के दुनिया की इनायत हो कि हो तेरी नवाज़िश ख़ाली नहीं जाते हैं कभी वार ग़ज़ल के दोनों में हकीक़त में कोई फ़र्क़ नहीं है होते हैं सुख़नफ़ह्म तरफ़दार ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ के अल्फ़ाज़ मआनी के मआनी हुशियार बड़े होते हैं फ़नकार ग़ज़ल के वो मीर का उस्लूब वो ग़ालिब का सलीक़ा पहले न थे अंदाज़ दिल-आज़ार ग़ज़ल के वो बहरो-क़वाफ़ी वो रदीफ़ें वो ज़मीनें दिलचस्प बड़े होते हैं किरदार ग़ज़ल के सौ बार ये सोचा कि बस अब नज़्म लिखेंगे चक्कर में मगर आ गये हर-बार ग़ज़ल के बाज़ार में हर शख़्स क़सीदे का तलबगार हम हैं कि लिए फिरते हैं अशआर ग़ज़ल के आ पड़ा हूँ नाउमीदी के खुले मैदान में कोई घर ख़ाली नहीं है कूचा-ए-इमकान में आम इंसा क्या मुफ़क्किर भी रहे नुक़सान में बामो-दर क्या फ़लसफ़े भी उड़ गए तूफ़ान में हम समझते थे फ़क़त हम ही हैं इस बुहरान में देखकर बेजान सबको जान आयी जान में है मुक़द्दसतर शबे-वादा से रोज़े-इन्तिज़ार सच्चे रोज़ेदार की तो ईद है रमज़ान में अपनी ग़ुरबत का ज़ियादा तज़करा अच्छा नहीं फ़ारसी ख़ुद अजनबी लगती हो जब ईरान में शायरी में गुफ़्तगू के लफ़्ज़ हम लाये मगर फूल जो अस्ली थे मसनूई लगे गुलदान में आपका अंदाज़ रहना चाहिए था आप तक ग़ैर भी करता है गुस्ताख़ी हमारी शान में शिद्दते-तन्हाई की तारीख़ गोया दफ़्न है मेरी तन्हा चारपाई के शिकस्ता बान में सारी दुनिया कर रही है उसकी सहरा में तलाश और दीवाना छुपा है ‘मीर’के दीवान में लोग खुश हैं और हमको ज़ात का ग़म हो रहा है दिन-ब-दिन दुनिया से अपना राबता कम हो रहा है वो समझ ले जो समझ सकता है हम फिर कह रहे हैं कर्बला में आजकल जश्ने-मुहर्रम हो रहा है इस तरफ हालात के हरबे बराबर बढ़ रहे हैं उस तरफ यादों का दस्ता फिर मुनज्ज़म हो रहा है हम बज़ोमे-ख़ुद बहुत बरहम ज़माने से हैं लेकिन लोग कहते हैं ज़माना हमसे बरहम हो रहा है जाने कब बदलेगा ये मंज़र जहाने-आरज़ू का हादसा होने से पहले इतना मातम हो रहा है मेरा दिल हाथों में ले लो क्या तुम्हारा जायेगा और मेरा ही समरक़न्दो-बुख़ारा जायेगा तिश्नगी का एक-एक पहलू उभरा जायेगा वस्ल की शब को भी फुरक़त में गुज़ारा जायेगा कल ये मंसूबा बनाया हमने पी लेने के बाद आसमानों को ज़मीनों पर उतरा जायेगा डूबने से फ़ायदा भी होगा और नुक़सान भी ज़हन से तूफ़ान हाथों से किनारा जायेगा दर्द जायेगा तो कुछ-कुछ जायेगा पर देखना चैन जब जायेगा तो सारा का सारा जायेगा कुछ नहीं बोला तो मर जाएगा अन्दर से ‘शुजाअ’और अगर बोला तो फिर बाहर से मारा जाएगा सुकूँ ज़मीने-कनाअत पे जब नज़र आया तो आरज़ू की बुलंदी से मैं उतर आया हुजूमे-फ़िक्र में तेरा ख़याल दर आया कोई तो आशना इस भीड़ में नज़र आया रक़ीब मेरे ख़िलाफ़ उसके कान भर आया जो उस गरीब के बस का था काम कर आया हयातो-मौत की कुछ साज़-बाज़ लगती है तिरा ख़याल गया और चारागर आया दिलो-दिमाग की सब नफरतें बरहना थीं अचानक आज जो दुश्मन हमारे घर आया जो हमसे होगा वो हम भी ज़ुरूर कर लेंगे अगर बहार का मौसम शबाब पर आया वो जिससे पूरा तअर्रुफ़ भी हो न पाया था वो एक शख्स हमें याद उम्र भर आया तिरे क़सीदे से उसका भला तो क्या होता ‘शुजाअ’कुछ तिरा उसलूब ही निखर आया आ पड़ा हूँ नाउमीदी के खुले मैदान में कोई घर ख़ाली नहीं है कूचा-ए-इमकान में आम इंसा क्या मुफ़क्किर भी रहे नुक़सान में बामो-दर क्या फ़लसफ़े भी उड़ गए तूफ़ान में हम समझते थे फ़क़त हम ही हैं इस बुहरान में देखकर बेजान सबको जान आयी जान में है मुक़द्दसतर शबे-वादा से रोज़े-इन्तिज़ार सच्चे रोज़ेदार की तो ईद है रमज़ान में अपनी ग़ुरबत का ज़ियादा तज़करा अच्छा नहीं फ़ारसी ख़ुद अजनबी लगती हो जब ईरान में शायरी में गुफ़्तगू के लफ़्ज़ हम लाये मगर फूल जो अस्ली थे मसनूई लगे गुलदान में आपका अंदाज़ रहना चाहिए था आप तक ग़ैर भी करता है गुस्ताख़ी हमारी शान में शिद्दते-तन्हाई की तारीख़ गोया दफ़्न है मेरी तन्हा चारपाई के शिकस्ता बान में सारी दुनिया कर रही है उसकी सहरा में तलाश और दीवाना छुपा है ‘मीर’के दीवान में पहुँचा हुजूर-ए-शाह हर एक रंग का फ़कीर पहुँचा नहीं जो, था वही पोंह्चा हुआ फ़कीर वो वक्त का गुलाम तो यह नाम का फ़कीर क्या बादशाह-ए-वक्त मियाँ और क्या फ़कीर मंदर्जा जेल लफ्जों के मानी तालाश कर दरवेश, मस्त, सूफी, कलंदर, गदा, फकीर हम कुछ नहीं थे शहर में, इसका मलाल है एक शख्स शहरयार था और एक था फकीर क्या दौर आ गया है कि रोज़ी की फिक्र में हाकिम बना हुआ है एक अच्छा भला फकीर इस कशमकश में कुछ नहीं बन पाओगे ‘शुजाअ’या शहरयार बन के रहो और या फ़कीर उड़ा क्या जो रुख़ पर हवा के उड़ा कि इससे तो अच्छा हूँ मैं बेउड़ा किसी दिन अचानक क़रीब आ के तू तसव्वुर में मेरे परखचे उड़ा अभी तक नज़र मैं है मेरा वुजूद तख़य्युल ज़रा और नीचे उड़ा जिसे सब समझते थे बे-बालो-पर वही इक परिंदा क़फ़स ले उड़ा ‘शुजा’आँधियों कि करो फ़िक्र तुम वो आयी सहर और मैं ये उड़ा क्या किया जाए यही अल्लाह को मंज़ूर है दिल्ली आकर भी ये लगता है कि दिल्ली दूर है वो तजल्ली[1] है न मूसा[2] है , न कोहे-तूर [3] है लम्हा-ए-मौजूद [4] इम्कानात[5] से भरपूर है हर मिसल[6] को तजरिबों [7] ने मेरे झुठलाया बहुत तजरिबे गुमनाम हैं और हर मिसल मशहूर है आजकल बस शायरी करता है रोज़-ओ-शब ‘शुजाअ’शह्र ही ऐसा है, बेचारा बड़ा मजबूर है

Transliteration text

 

پار اترنے کے لئے تو خیر بالکل چاہئیے

بیچ دریا ڈوبنا بھی ہو تو اک پل چاہئیے

 

فکر تو اپنی بہت ہے بس تغز٭٭٭ر سمہگار کےزینت ہیں۔ر ای بک کی تشکیل: اعجاز عبیدل چاہئیے

نالۂ بلبل کو گویا خندۂ گل چاہئیے

 

شخصیت میں اپنی وہ پہلی سی گہرائی نہیں

پھر تیری جانب سے تھوڑا سا تغافل چاہئیے

 

جن کو قدرت ہے تخئیل پر انہیں دکھتا نہیں

جن کی آنکھیں ٹھیک ہیں ان کو تخئیل چاہئیے

 

روز ہمدردی جتانے کے لئے آتے ہیں لوگ

موت کے بعد اب ہمیں جینا نہ بالکل چاہئیے

٭٭٭

 

 

 

 

 

کیا فکر جو دشمن ہیں مرے یار غزل کے

مداح بھی مل جائیں گے دوچار غزل کے

 

اسلوب کے طوفان میں مضمون کی کشتی

اللہ اتارے گا مجھے پار غزل کے

 

طوفان ہو سینے میں مگر لب پہ خموشی

حضرات یہی ہوتے ہیں آثار غزل کے

 

دنیا کی عنایت ہو کہ ہو تیری نوازش

خالی نہیں جاتے ہیں کبھی وار غزل کے

 

دونوں میں حقیقت میں کوئی فرق نہیں ہے

ہوتے ہیں سخن فہم طرفدار غزل کے

 

الفاظ کے الفاظ معانی کے معانی

ہشیار بڑے ہوتے ہیں فنکار غزل کے

 

وہ میر کا اسلوب وہ غالب کا سلیقہ

پہلے نہ تھے انداز دل آزار غزل کے

 

وہ بحر و قوافی وہ ردیفیں وہ زمینیں

دلچسپ بڑے ہوتے ہیں کردار غزل کے

 

سو بار یہ سوچا کہ بس اب نظم لکھیں گے

چکر میں مگر آ گئے ہر بار غزل کے

 

بازار میں ہر شخص قصیدے کا طلب گار

ہم ہیں کہ لئے پھرتے ہیں اشعار غزل کے

٭٭٭

 

 

 

 

آ پڑا ہوں نا امیدی کے کھلے میدان میں

کوئی گھر خالی نہیں ہے کوچۂ امکان میں

 

عام انساں کیا مفکر بھی رہے نقصان میں

بام و در کیا فلسفے بھی اڑ گئے طوفان میں

 

ہم سمجھتے تھے فقط ہم ہی ہیں اس بحران میں

دیکھ کر بیجان سب کو جان آئی جان میں

 

ہے مقدس تر شب وعدہ سے روزِ انتظار

سچے روزے دار کی تو عید ہے رمضان میں

 

اپنی غربت کا زیادہ تذکرہ اچھا نہیں

فارسی خود اجنبی لگتی ہو جب ایران میں

 

شاعری میں گفتگو کے لفظ ہم لائے مگر

پھول جو اصلی تھے مصنوعی لگے گل دان میں

 

آپ کا انداز رہنا چاہئیے تھا آپ تک

غیر بھی کرتا ہے گستاخی ہماری شان میں

 

شدتِ تنہائی کی تاریخ گویا دفن ہے

میری تنہا چارپائی کے شکستہ بان میں

 

ساری دنیا کر رہی ہے اس کی صحرا میں تلاش

اور دیوانہ چھپا ہے میرؔ کے دیوان میں

٭٭٭

 

 

 

 

 

 

لوگ خوش ہیں اور ہم کو ذات کا غم ہو رہا ہے

دن بدن دنیا سے اپنا رابطہ کم ہو رہا ہے

 

وہ سمجھ لے جو سمجھ سکتا ہے ہم پھر کہہ رہے ہیں

کربلا میں آج کل جشن محرم ہو رہا ہے

 

اس طرف حالات کے حربے برابر بڑھ رہے ہیں

اس طرف یادوں کا دستہ پھر منظم ہو رہا ہے

 

ہم بزعمِ خود بہت برہم زمانے سے ہیں لیکن

لوگ کہتے ہیں زمانہ ہم سے برہم ہو رہا ہے

 

جانے کب بدلے گا یہ منظر جہان آرزو کا

حادثہ ہونے سے پہلے اتنا ماتم ہو رہا ہے

٭٭٭

 

 

 

 

میرا دل ہاتھوں میں لے لو کیا تمہارا جائے گا

اور میرا ہی سمرقندو بخارا جائے گا

 

تشنگی کا ایک ایک پہلو ابھارا جائے گا

وصل کی شب کو بھی فرقت میں گزارا جائے گا

 

کل یہ منصوبہ بنایا ہم نے پی لینے کے بعد

آسمانوں کو زمینوں پر اتارا جائے گا

 

ڈوبنے سے فائدہ بھی ہوگا اور نقصان بھی

ذہن سے طوفان ہاتھوں سے کنارا جائے گا

 

درد جائے گا تو کچھ کچھ جائے گا، پر دیکھنا

چین جب جائے گا تو سارا کا سارا جائے گا

 

کچھ نہیں بولا تو مر جائے گا اندر سے شجاعؔ

اور اگر بولا تو پھر باہر سے مارا جائے گا

٭٭٭

 

 

 

 

 

سکوں زمینِ قناعت پہ جب نظر آیا

تو آرزو کی بلندی سے میں اتر آیا

 

ہجوم فکر میں تیرا خیال در آیا

کوئی تو آشنا اس بھیڑ میں نظر آیا

 

رقیب میرے خلاف اس کے کان بھر آیا

جو اس غریب کے بس کا تھا کام کر آیا

 

حیات و موت کی کچھ ساز باز  لگتی ہے

ترا خیال گیا اور چارہ گر آیا

 

دل و دماغ کی سب نفرتیں برہنہ تھیں

اچانک آج جو دشمن ہمارے گھر آیا

 

جو ہم سے ہوگا وہ ہم بھی ضرور کر لیں گے

اگر بہار کا موسم شباب پر آیا

 

وہ جس سے پورا تعارف بھی ہو نہ پایا تھا

وہ ایک شخص ہمیں یاد عمر بھر آیا

 

ترے قصیدے سے اس کا بھلا تو کیا ہوتا

شجاعؔ کچھ ترا اسلوب ہی نکھر آیا

٭٭٭

 

 

 

 

پہنچا حضور شاہ ہر اک رنگ کا فقیر

پہنچا نہیں جو، تھا وہی پہنچا ہوا فقیر

 

وہ وقت کا غلام تو یہ نام کا فقیر

کیا بادشاہِ  وقت میاں، اور کیا فقیر

 

مندرجہ ذیل لفظوں کے معنی تلاش کر

درویش، مست، صوفی، قلندر، گدا، فقیر

 

ہم کچھ نہیں تھے شہر میں، اس کا ملال ہے

اک شخص شہریار تھا اور ایک تھا فقیر

 

کیا دور آ گیا ہے کہ روزی کی فکر میں

حاکم بنا ہوا ہے اک اچھا بھلا فقیر

 

اس کشمکش میں کچھ نہیں بن پاؤ گے شجاعؔ

یا شہریار بن کے رہو اور یا فقیر

٭٭٭

 

 

 

 

اڑا کیا جو رخ پر ہوا کے اڑا

کہ اس سے تو اچھا ہوں میں بے ا ڑا

 

کسی دن اچانک قریب آ کے تو

تصور میں میرے پرخچے اڑا

 

ابھی تک نظر میں ہے میرا وجود

تخیل ذرا اور نیچے اڑا

 

جسے سب سمجھتے تھے بے بال و پر

وہی اک پرندہ قفس لے اڑا

 

شجاعؔ آندھیوں کہ کرو فکر تم

وہ آئی سحر اور میں یہ اڑا

٭٭٭

 

 

 

 

 

کیا کیا جائے یہی اللہ کو منظور ہے

دہلی آ کر بھی یہ لگتا ہے کہ دہلی دور ہے

 

وہ تجلی ہے نہ موسٰی ہے ، نہ کوہِ طور  ہے

لمحۂ موجود  امکانات سے بھرپور ہے

 

ہر مثل کو تجربوں  نے میرے جھٹلایا بہت

تجربے گمنام ہیں اور ہر مثل مشہور ہے

 

آج کل بس شاعری کرتا ہے روز و شب شجاعؔ

شہر ہی ایسا ہے، بیچارہ بڑا مجبور ہے

٭٭٭

 

 

 

 

اس اعتبار سے بے انتہا ضروری ہے

پکارنے کے لئے اک خدا ضروری ہے

 

ہزار رنگ میں ممکن ہے درد کا اظہار

ترے فراق میں مرنا ہی کیا ضروری ہے

 

شعور شہر کے حالات کا نہیں سب کو

بیان شہر کے حالات کا ضروری ہے

 

کچھ ایسے شعر ہیں یارو، جو ہم نہیں کہتے

ہر ایک بات کا اظہار کیا ضروری ہے

 

شجاعؔ موت سے پہلے ضرور جی لینا

یہ کام بھول نہ جانا بڑا ضروری ہے

٭٭٭

 

 

 

 

یہاں تو قافلے بھر کو اکیلا چھوڑ دیتے ہیں

سبھی چلتے ہوں جس پر ہم وہ رستہ چھوڑ دیتے ہیں

 

قلم میں زور جتنا ہے جدائی کی بدولت ہے

ملن کے بعد لکھنے والے لکھنا چھوڑ دیتے ہیں

 

زمیں کے مسئلوں کا حل اگر یوں ہی نکلتا ہے

تو لو جی آج سے ہم تم سے ملنا چھوڑ دیتے ہیں

 

جو زندہ ہوں اسے تو مار دیتے ہیں جہاں والے

جو مرنا چاہتا ہے اس کو زندا چھوڑ دیتے ہیں

 

مکمل خود تو ہو جاتے ہیں سب کردار آخر میں

مگر کمبخت قاری کو ادھورا چھوڑ دیتے ہیں

 

وہ ننگ آدمیت ہی سہی پر یہ بتا اے دل

پرانے دوستوں کو اس قدر کیا چھوڑ دیتے ہیں

 

یہ دنیاداری اور عرفان کا دعویٰ شجاع خاور

میاں عرفان ہو جائے تو تو دنیا چھوڑ دیتے ہیں

٭٭٭

 

 

 

 

 

 

لشکر کو بچائیں گی یہ دو چار صفیں کیا

اور ان میں بھی ہر شخص یہ کہتا ہے ہمیں کیا

 

یہ تو سبھی کہتے ہیں، کوئی فکر نہ کرنا

یہ کوئی بتاتا نہیں ہم کو کہ کریں کیا

 

گھر سے تو چلے جاتے ہیں بازار کی جانب

بازار میں یہ سوچتے پھرتے ہیں کہ لیں کیا

 

آنکھوں کو کیے بند پڑے رہتے ہیں ہم لوگ

اس پر بھی تو خوابوں سے ہیں محروم کریں کیا

 

جسمانی تعلق پہ یہ شرمندگی کیسی

آپس میں بدن کچھ بھی کریں اس سے ہمیں کیا

 

خوابوں میں بھی ملتے نہیں حالات کے ڈر سے

ماتھے سے بڑی ہو گئیں یارو شکنیں کیا

٭٭٭

 

 

 

 

حالات نہ بدلیں تو اسی بات پہ رونا

بدلیں، تو بدلتے ہوئے حالات پہ رونا

 

پڑ جائے گا تم کو بھی غمِ ذات پہ رونا

جس بات پہ ہنستے ہو اسی بات پہ رونا

 

اظہار میں قوت ہے تو مل جائے گا موضوع

سوکھا نہیں پڑتا ہے تو برسات پہ رونا

 

اس شہر میں سب ٹھیک ہے، کیا سوچ رہے ہو

رونا ہے تو اپنے ہی خیالات پہ رونا

 

میں آپ کی اس سرد مزاجی پہ ہنسوں گا

اور آپ مری شدتِ جذبات پہ رونا

٭٭٭

ماخذ: کوتا کوش اور دوسری ہندی سائٹس

ترجمہ،تبدیل رسم الخط، تدوین اور ای بک کی تشکیل: اعجاز عبید